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प्रियप्रवास

ऐसे भी थे दिवस जब थी चित्त मे वृद्धि पाती।
सम्वादो को श्रवण करके कष्ट उन्मूलनेच्छा।
ऊधो बीते दिवस अब वे, कामना है विलीना।
भोले भाले विकच मुख की दर्शनोत्कण्ठता मे ॥१६॥

प्यासे की है न जल - कण से दूर होती पिपासा।
बातो से है न अभिलषिता शान्ति पाता वियोगी।
कष्टो मे अल्प उपशम भी क्लेश को है घटाता।
जो होती है तदुपरि व्यथा सो महा दुर्भगा है ॥१७॥
मालिनी छन्द
सुत सुखमय स्वेहो का समाधार सा है।
सदय हृदय है औ सिधु सौजन्य का है।
सरल प्रकृति का है शिष्ट है शान्त धी है।
वह बहु विनयी, 'है मृत्ति आत्मीयता की' ॥१८॥

तुम सम मृदुभाषी धीर सबंधु ज्ञानी ।
उस गुण-मय का है दिव्य सम्वाद लाया।
पर मुझ दुख · दग्धा भाग्यहीनांगना की।
यह दुख • मय - दोषा वैसि ही है स-दोषा ।।१९।।

हृदय • तल दया के उत्स-सा श्याम का है।
वह पर • दुख को था देख उन्मत्त होता ।
प्रिय-जननि उसीकी आज है शोक-मग्ना।
वह मुख दिखला भी क्यो न जाता उसे है ॥२०॥

मृदुल-कुसुम-सा है औ तुने तूल-सा है।
नव-किशलय-सा है स्नेह के उस - सा है।
सदय-हृदय ऊधो श्याम का है बड़ा ही।
अहह हृदय मॉ- सा स्निग्ध तो भी नहीं है ॥२१॥