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प्रियप्रवास

जो पाती हूँ कुँवर - मुख के जोग मैं भोग - प्यारा ।
तो होती है हृदय - तल मे वेदनायें - बड़ी ही ।
जो कोई भी सु - फल सुत के योग्य मैं देखती हूँ ।
हो जाती हूँ परम व्यथिता, हूँ महादग्ध होती ॥२८॥

जा लाती थीं विविध - रॅग के मुग्धकारी खिलौने ।
वे आती है सदन अब भी कामना मे पगी सी ।
हा ! जाती है पलट जब वे हो निराशा - निमग्ना ।
तो उन्मत्ता - सदृश पथ की ओर मै देखती हूँ ॥२९॥

आते लीला निपुण - नट है आज भी बॉध आशा ।
कोई यो भी न अब उनके खेल को देखता है ।
प्यारे होते मुदित जितने कौतुकों से सदा ही ।
वे ऑखो मे विषम - दुव है दर्शको के लगाते ॥३०॥

प्यारा खाता रुचिर नवनी को बड़े चाव से था ।
खाते खाते पुलक पड़ता नाचता कूदता था ।
ए बाते है सरस नवनी देखते याद आती ।
हो जाता है मधुरतर औ स्निग्ध भी दग्धकारी ॥३१॥

हा! जो वंशी सरस रव से विश्व को मोहती थी ।
सो आले मे मलिन बन औ मक हो के पड़ी है ।
जो छिद्रो से अमृत बरसा मूर्ति थी मुग्धता की ।
सो उन्मत्ता परम - विकला उन्मना है बनाती ॥३२॥

प्यारे ऊधो सरत करता लाल मेरी कभी है ।
क्या होता है न अब उसको ध्यान बढे - पिता का ।
रो रो, हो हो विकल अपने वार जो है बिताते ।
हा ! वे सीधे सरल - शिशु हैं क्या नहीं याद आते ॥३३॥