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दशम सर्ग

कैसे भली सरस - खनि सी प्रीति की गोपिकाये ।
कैसे भूले सुहृदपन के सेतु से गोपग्वाले ।
शान्ता धीरा मधुरहृदया प्रेम - रूपा रसज्ञा ।
कैसे भूली प्रणय - प्रतिमा - राधिका मोहमग्ना ॥३४॥

कैसे वृन्दा - विपिन विसरा क्यो लता - वेलि भूली ।
कैसे जी से उतर ब्रज की कुज - पुंजे गई है ।
कैसे फूले विपुल - फल से नम्र भूजात भूले ।
कैसे भूला विकच - तरु सो अर्कजा - कूल वाला ॥३५।।

सोती सोती चिहॅक कर जो श्याम को है बुलाती ।
ऊधो मेरी यह सदन की शारिका कान्त - कण्ठा ।
पाला पोसा प्रति-दिन जिसे श्याम ने प्यार से है ।
हा ! कैसे सो हृदय - तल से दूर यो हो गई है ।।३।।

जा कुंजो मे प्रति - दिन जिन्हे चाव से था चराया ।
जो प्यारी थी ब्रज अवनि के लाडिले को सदा ही ।
खिन्ना, दीना, विकल वन मे आज जो घूमती है ।
ऊधो कैसे हृदय - धन को हाय ! वे धेनु भूली ॥३७॥

ऐसा प्राय. अब तक मुझे नित्य ही है जनाता ।
गो गोपो के सहित वन से सद्म है श्याम आवा ।
यो ही आ के हृदय तल को वैधता मोह लेता ।
मीठा - वंशी - सरस - रव है कान में गूंज जाता ॥३८॥

रोते - रोते तनिक लग जो-ऑख जाती कभी है ।
हा । त्योही मैं हग - युगल को चौक के खोलती हूँ ।
प्राय. ऐसा प्रति - रजनि मे ध्यान होता मुझे है ।
जैसे आ के सुअन मुझको प्यार से है जगाता ॥३९॥