पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२६
प्रियप्रवास

ऐसा ऊधो प्रति - दिन कई बार है ज्ञात होता ।
कोई यो है कथन करता लाल आया तुम्हारा ।
भ्रान्ता सी मै अब तक गई द्वार पै बार लाखो ।
हा! ऑखो से न वह बिछुड़ी-श्यामली-मूर्ति देखी ॥४०॥

फूले - अंभोज सम हम से मोहते मानसो को ।
प्यारे . प्यारे वचन कहते खेलते मोद देते ।
ऊधो ऐसी अनुमिति सदा हाय !, होती मुझे है ।
जैसे आता निकल अब ही लाल है मंदिरो से ॥४१।।

आ के मेरे निकट नवनी लालची लाल सेरा ।
लीलाये था विविध करता धूम भी था मचाता ।
ऊधो बाते न यक पल भी हाय! वे भलती है ।
हा! छा जाता हग-युगल मे आज भी सो समाँ है ।।४२॥

मैं हाथो से कुटिल : अलके लाल की थी बनाती ।
पुष्पो को थी श्रुति - युगल के कुण्डलो मे सजाती ।
मुक्ताओ को शिर मुकुट मे मुग्ध हो थी लगाती ।
पीछे शोभा निरख मुख की थी न फूले समाती ॥४३॥

मै प्रायः ले कुसुमकलिका चाव से थी, बनाती ।
शोभा - वाले - विविध गजरे क्रीट औ कुण्डलो को ।
पीछे हो हो सुखित उनको श्याम को थी पिन्हाती ।
औ उत्फुल्ला प्रथित - कलिका तुल्य थी पूर्ण होती ॥४४॥

पैन्हे प्यारे - वसन कितने दिव्य - आभूषणो को ।
प्यारी - वाणी विहॅस कहते पूर्ण - उत्फुल्ल होते ।
शोभा - शाली - सुअन जब था खेलता मन्दिरो में ।
तो पा जाती अमरपुर की सर्व सम्पत्ति मै थी ॥४५।।