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दशम सर्ग

पीड़ा- कारी- करुण स्वर से हो महा- उन्मना सी।
हा! रो रो के स - दुख जब यो शारिका पूछती है।
बंशीवाला हृदय - धन सो श्याम मेरा कहाँ है।
तो है मेरे हृदय - तल मे शूल सा विद्ध होता ।५।८।।

त्यौहारो को अपर कितने पर्व औ उत्सवो को।
मेरा प्यारा - तनय अति ही भव्य देता बना था।
आते हैं वे व्रज - अवनि मे आज भी किन्तु ऊधो।
दे जाते हैं परम दुख औ वेदना हैं बढ़ाते ॥५९।।

कैसा - प्यारा जनम - दिन था धूम कैसी मची थी।
संस्कारो के समय सुत के रंग कैसा जमा था।
मेरे जी मे उदय जब वे दृश्य हैं आज होते ।
हो जाती तो प्रबल - दुख से मूर्ति मैं हूँ शिला की ॥६०॥

कालिंदी के पुलिन पर को मंजु - वृंदाटवी की।
फूले नीले - तरु निकर की कुंज की आलयों की।
प्यारी-लीला-सकल जव हैं लाल की याद आती।
तो कैसा है हृदय मलता मैं उसे क्यो बताऊँ ।।६१।।

मारा मल्लो - सहित गज को कंस से पातकी को ।
मेटी सारी नगर - वर की दानवी - आपदाये।
छाया सच्चा - सुयश जग मे पुण्य की वेलि बोई।
जो प्यारे ने स - पति दुखिया - देवकी को छुडाया ॥६२॥

जो होती है सुरत उनके कम्प, - कारी दुखो की।
तो ऑसू है विपुल बहता आज भी लोचनो से ।
ऐसी दग्धा परम : दुखिता जो हुई मोदिता है ।
ऊधो तो हूँ परम सुखिता हर्षिता आज मैं भी ॥६३।।