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प्रियप्रवास

तो भी पीड़ा - परम इतनी बात से हो रही है ।
काढ़े लेती मम - हृदय क्यो, स्नेह - शीला सखी है ।
हो जाती हूँ मृतक सुनती हाय ! जो यों कभी हूँ ।
होता जाता मम तनय भी अन्य का लाडिला है ।।६४।।
 
मै रोती हूँ हृदय अपना कूटती हूँ सदा ही। हा ।
ऐसी ही व्यथित अब क्यो देवकी को करूंगी ।
प्यारे जीवे पुलकित रहें औ बने भी उन्हीके ।
धाई नाते वदन दिखला एकदा और देवे ॥६५॥

नाना यत्नो अपर कितनी युक्तियों से जरा मे ।
मैने ऊधो! सुकृति बल से एक ही पुत्र पाया ।
सो जा बैठा अरि - नगर मे हो गया अन्य का है ।
मेरी कैसी, अहह कितनी, मर्म-वेधी व्यथा है ॥६६॥

पत्रो पुष्पो रहित विटपी विश्व मे हो न कोई ।
कैसी ही हो सरस सरिता वारि - शून्या न होवे ।
ऊधो सीपी - सदृश न कभी भाग फूटे किसी का ।
मोती ऐसा रतन अपना आह! कोई न खोवे ॥६७।।

अंभोजो से रहित न कभी अंक हो वापिका का ।
कैसी ही हो कलित - लतिका पुष्प - हीना न होवे ।
जो प्यारा है परम - धन है जीवनाधार जो है ।
ऊधो ऐसे रुचिर. -विटपी शून्य वाटी न होवे ।।६८।।

छीना जावे लकुट न कभी वृद्धता मे किसी का ।
ऊधो कोई न कल-छल से लाल ले ले किसी का ।
पूँजी कोई जनम भर की गॉठ से खो न देवे ।
सोने का भी सदन न विना दीप के हो किसी का ।।६९।।