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प्रियप्रवास

जो चूके हैं विविध मुझसे हो चुकी वे सदा ही।
पीड़ा दे दे मथित चित को प्रायशः हैं सताती।
प्यारे से यो विनय - करना वे उन्हे भूल जावे।
मेरे जी को व्यथित न करे क्षोभ आ के मिटावे ॥७६॥

खेले आ के हग युगल के सामने मंजु - बोले।
प्यारी लीला पुनरपि करे गान मीठा सुनावे।
मेरे जी मे अब रह गई एक ही कामना है।
आ के प्यारे कुँवर उजड़ा -गेह मेरा बसावें ।।७७॥

जो आँखे है उमग खुलती ढूँढती श्याम को है।
लौ कानो को मुरलिधर की तान ही की लगी है।
आती सी है यह ध्वनि सदा गात- रोमावली से। ।
मेरा प्यारा सुअन ब्रज में एकदा और आवे ।।७८।।

मेरी आशा नवल - लतिका थी बड़ी ही मनोज्ञा ।
नीले - पत्ते सकल उसके नीलमो के बने थे।
हीरे के थे कुसुम फल थे लाल गोमेदको के।
पन्नो द्वारा रचित उसकी सुन्दरी डंठियाँ थी ।।७९‌‌।।

ऐसी आशा - ललित - लतिका हो गई शुष्क - प्राया।
सारी शोभा सु - छवि - जनिता नित्य है नष्ट होती।
जो आवेगा न अब ब्रज मे श्याम - सत्कान्ति-शाली।
होगी हो के विरस वह तो सर्वथा छिन्न- मूला ॥८०॥

लोहू मेरे ग-युगल से अश्रु की ठौर आता।
रोये रोये सकल - तन के दग्ध हो छार होते।
आशा न होती यदि मुझको श्याम के लौटने की।
मेरा सूखा - हृदयतल तो सैकड़ो खंड होता ।।८१।।