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प्रियप्रवास

साथी रोये विपुल - जनता ग्राम से दौड़ आई ।
तो भी कोई सदय बन के अर्कजा मे न कूदा ।
जो क्रीड़ा मे परम - उमड़ी आपगा पैर जाते ।
वे भी सारा - हृदय - बल खो त्याग वीरत्व बैठे ॥८८।।

जो स्नेही थे परम - प्रिय थे प्राण जो वार देते ।
वे भी हो के त्रसित विविधा - तर्कना मध्य डूबे ।
राजा हो के न असमय मे पा सका मैं सु- साथी ।
कैसे ऊधो कु - दिन अवनी - मध्य होते बुरे हैं ।।८९॥

मेरे प्यारे कुँवर - वर ने ज्यो सुनी कष्ट - गाथा ।
दौड़े आये तरणि - तनया मध्य तत्काल कूदे ।
यत्नो- द्वारा पुलिन पर ला प्राण मेरा बचाया ।
कर्तव्यो से चकित करके कूल के मानवो को ।।९०॥

पूजा का था दिवस जनता थी महोत्साह - मग्ना ।
ऐसी बेला मम - निकट आ एक मोटे फणी ने ।
मेरा दायाँ - चरण पकड़ा मैं कॅपा लोग दौड़े ।
तो भी कोई न मम-हित की युक्ति सूझी किसी को ॥९१॥

दौड़े, आये कुंवर सहसा औ कई - उल्मको से ।
नाना ठौरो वपुष - अहि का कौशलो से जलाया ।
ज्योही छोड़ा चरण उसने त्यो उसे मार डाला ।
पीछे नाना - जतन करके प्राण मेरा बचाया ।।९२॥

जैसे जैसे कुॅवर - वर ने हैं किये कार्य - न्यारे ।
वैसे उधो न कर सकते है महा-विक्रमी भी ।
जैसी मैंने गहन उनमे बुद्धि - मत्ता विलोकी ।
वैसी वृद्धो प्रथित - विवुधो मंत्रदो मे न देखी ॥९३।।