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प्रियप्रवास

कलिन्दजा की कमनीय - धार जो।
प्रवाहिता है भवदीय - सामने।
उसे बनाता पहले विषाक्त था।
विनाश - कारी विष - कालिनाग का ॥११॥

जहाँ सुकल्लोलित उक्त धार है।
वही बड़ा - विस्तृत एक कुण्ड है।
सदा उसीमें रहता भुजंग था।
भुजंगिनी संग लिये सहस्रशः ॥१२॥

मुहुर्मुहुः सर्प - समूह - श्वास से।
कलिन्दजा का कॅपता प्रवाह था।
असंख्ये फूत्कार प्रभाव से सदा ।
विषाक्त होता सरिता सदम्बु था ॥१३।।

दिखा रहा सम्मुख जो कदम्ब है।
कही इसे छोड़ न एक वृक्ष था।
द्वि - कोस पर्यंत द्वि - कूल भानुजा।
हरा भरा था . न प्रशंसनीय था ॥१४॥

कभी यहाँ का भ्रम या प्रमाद से।
कदम्बु पीता यदि था विहंग भी।
नितान्त तो व्याकुल औ विपन्न हो।
तुरन्त ही था प्रिय - प्राण त्यागता ।।१५।।

बुरा यहाँ का जल पी, सहस्रशः।
मनुष्य होते प्रति - वर्प नष्ट थे।
कु - मृत्यु पाते इस ठौर नित्य ही।
अनेकशः गो, मृग, कीट कोटिशः ॥१६॥