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एकादश सर्ग

मनोज्ञ था काल द्वितीय याम था ।
प्रसन्न था व्योम दिशा प्रफुल्ल थी ।
उमंगिता थी सित - ज्योति - संकुला ।
तरंग - माला - मय - भानु-नन्दिनीं ॥२९॥

विलोक सानन्द सु - व्योम मेदिनी ‌।
खिले हुए - पंकज पुष्पिता लता ।
अतीव - उल्लासित हो स्व - वेणु ले ।
कदम्ब के ऊपर श्याम जा चढ़े ॥३०॥

कँपा सु - शाखा बहु पुष्प को गिरा ।
पुन पड़े कूद प्रसिद्ध कुण्ड मे ‌।
हुआ समुद्भिन्न प्रवाह वारि का ।
प्रकम्प - कारी व व्योम मे उठा ॥३१॥

अपार - कोलाहल ग्राम में मचा ।
विषाद फैला व्रज सहा - सद्म मे ।
ब्रजेश हो व्यस्त--समस्त दौड़ते ।
खड़े हुए आ कर उक्त कुण्ड पै ॥३२॥

असंख्य-प्राणी व्रज - भूप साथ ही ।
स- वेग आये हग - वारि मोचते ।
ब्रजांगना साथ लिये सहस्रश ‌।
बिसूरती आ पहुँची ब्रजेश्वरी ॥३३॥

द्वि - दंड मे ही जनता - समूह से ।
तमारिजा का तट पूर्ण हो गया ।
प्रकम्पिता हो बन मेदिनी उठी ।
विषादिता के वहु - आर्त-नादसे ॥३४॥