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एकादश सर्ग

अहीश को नाथ विचित्र - रीति से ।
स्व - हस्त मे थे वर - रज्जु को लिये ।
बजा रहे थे मुरली मुहुर्मुहु ।
प्रबोधिनी - मुग्धकरी - विमोहिनी ॥४१॥

समस्त-प्यारा - पट सिक्त था हुआ ।
न भीगने से वन - माल थी बची ।
गिरा रही थी अलके नितान्त ही ।
विचित्रता से वर - बूंद वारि की ॥४२॥

लिये हुए सर्प - समूह श्याम ज्यो ।
कलिन्दजा कम्पित अंक से कढ़े ।
खड़े किनारे जितने मनुष्य थे ।
सभी महा शंकित - भीत हो उठे ।।४३।।

हुए कई मूर्छित घोर - त्रास से ।
कई भगे भूतल मे गिरे कई ।
हुईं यशोदा अति ही प्रकम्पिता ।
ब्रजेश भी व्यस्त - समस्त हो गये ॥४४॥

विलोक सारी - जनता भयातुरा ।
मुकुन्द ने एक विभिन्न - मार्ग से ।
चढ़ा किनारे पर सर्प - यूथ को ।
उसे बढ़ाया वन - ओर वेग से ॥४५॥

ब्रजेन्द्र के अद्भुत - वेणु - नाद से ।
सतर्क - संचालन से सु- युक्ति से ।
हुए वशीभूत समस्त सर्प थे ।
न अल्प होते प्रतिकूल थे कभी ॥४६॥