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प्रियप्रवास

विदग्ध हो के कण - धूलि राशि का ।
हुआ तपे लौह करणा समान था ।
प्रतप्त - बालू - इव दग्ध - भाड़ की ।
भयंकरी थी महि - रेणु हो गई ॥५९।।

असह्य उत्ताप दुरंत था हुआ ।
महा समुद्विग्न मनुष्य मात्र था ।
शरीरियो की प्रिय-शान्ति - नाशिनी ।
निदाघ की थी अति - उग्र - ऊष्मता ॥६०॥

किसी घने - पल्लववान - पेड़ की -
प्रगाढ़ - छाया अथवा सुकुंज में ।
अनेक प्राणी करते व्यतीत थे ।
स - व्यग्रता ग्रीष्म दुरन्त - काल को ।।६१।।

अचेत सा निद्रित हो स्व - गेह मे ।
पड़ा हुआ मानव का समूह था ।
न जा रहा था जन , एक भी कही ।
अपार निस्तब्ध समस्त ग्राम था ॥६२।।

स्व - शावको साथ स्वकीय- नीड़ में ।
अबोल हो के खग - वृंद था पड़ा ।
स - भीत मानो वन दीर्घ दाघ से ।
नहीं गिरा भी तजती - स्व-गेह थी ॥६३।।

सु - कुंज मे या वर - वृक्ष के तले ।
अरात हो थे पशु पंगु से पड़े ।
प्रतप्त - भू मे गमनाभिशंकया ।
पदांक को थी गति त्याग के भगी ॥६४॥