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एकादश सर्ग

प्रचंड लू थी अति - तीव्र घाम था ।
मुहुर्मुहुः गर्जन था समीर का ।
विलुप्त हो सर्व - प्रभाव - अन्य का ।
निदाघ का एक अखंड - राज्य था ॥६५।।

अनक गो - पालक वत्स धेनु ले ।
बिता रहे थे बहु शान्ति - भाव से ।
मुकुन्द ऐसे अ - मनोज्ञ - काल को ।
वनस्थिता - एक - विराम कुंज मे ॥६६।।

परंतु प्यारी यह शांति श्याम की ।
विनष्ट औ भंग हुई तुरन्त ही ।
अचिन्त्य - दूरागत - भूरि - शब्द से ।
अजस्र जो था अति घोर हो रहा ॥६७॥

पुन पुन कान लगा लगा सुना ।
ब्रजेन्द्र ने उत्थित घोर - शब्द को ।
अत उन्हे ज्ञात तुरन्त हो गया ।
प्रचंड - दावा वन - मध्य है लगी ॥६८।।

गये उसी ओर अनेक - गोप थे ।
गवादि ले के कुछ - काल - पूर्व ही ।
हुई इसी से निज बंधु - वर्ग की ।
अपार चिन्ता ब्रज - व्योम - चंद्र को ।।६९।।

अत विना ध्यांन किये प्रचंडता ।
निदाघ की पूपण की समीर की ।
ब्रजेन्द्र दौड़े तज शान्ति - कुंज को ।
सु - साहसी गोप समूह संग ले ॥७०।।