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प्रियप्रवास

निकुंज से बाहर श्याम ज्यों कढ़े ।
उन्हे महा पर्वत धूमपुंज का ।
दिखा पड़ा दक्षिण ओर सामने ।
मलीन जो था करता दिगन्त को ।।७१।।

अभी गये वे कुछ दूर मात्र थे ।
लगी दिखाने लपटें भयावनी ।
वनस्थली बीच प्रदीप्त वह्नि की ।
मुहुर्मुहुः व्योम - दिगन्त - व्यापिनी ॥७२।।

प्रवाहिता उद्धत तीव्र वायु से ।
विधूनिता हो लपटे दवाग्नि की ।
नितान्त ही थी बनती भयंकरी ।
प्रचंड - दावा - प्रलयंकरी - समा ॥७३॥

अनन्त थे पादप दग्ध हो रहे ।
असंख्य गाठे फटती स - शब्द थी ।
विशेषतः वंश - अपार - वृक्ष की ।
बनी महा - शब्दित थी वनस्थली ॥७४।।

अपार पक्षी पशु त्रस्त हो महा ।
स - व्यग्रता थे सब ओर दौड़ते ।
नितान्त हो भीत सरीसृपादि भी ।
बने महा- व्याकुल भाग थे रहे ।।७५।।

समीप जा के बलभद्र • बंधु ने ।
वहाँ महा - भीषण-काण्ड जो लखा ।
प्रवीर है कौन त्रि - लोक मध्य जो ।
स्व - नेत्र से देख उसे न कॉपता ॥७६।।