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एकादश सर्ग

प्रचंडता मे रवि की दवाग्नि की ।
दुरन्तता थी अति ही विवर्द्धिता ।
प्रतीति होती उसको विलोक के ।
विदग्ध होगी ब्रज की वसुंधरा ॥७७॥

पहाड़ से पादप तूल पुंज से ।
स - मूल होते पल मध्य भस्म थे ।
बड़े- बड़े प्रस्तर खंड वह्नि से ।
तुरन्त होते तृण - तुल्य दग्ध थे ॥७८‌‌।।

अनेक पक्षी उड़ व्योम - मध्य भी ।
न त्राण थे पा सकते शिखाग्नि से ।
सहस्रशः थे पशु प्राण त्यागते ।
पतंग के तुल्य पलायनेच्छु हो ।॥७९॥

जला किसी का पग पूंँछ आदि था ।
पड़ा किसी का जलता शरीर था ।
जले अनेको जलते असंख्य थे ।
दिगन्त था आत - निनाद से भरा ।।८०।।

भयंकरी - प्रज्वलिताग्नि की शिखा ।
दिवांधता - कारिणि राशि धूम की ।
वनस्थली मे बहु - दूर - व्याप्त थी ।
नितान्त घोरा ध्वनि त्रास - वर्द्धिनी ॥८१॥

यही विलोका करुणा - निकेत ने ।
गवादिके साथ स्व - बन्धु - वर्ग को ।
शिखाग्नि द्वारा जिनकी शनैः शनैः ।
विनष्ट संज्ञा अधिकांश थी हुई ॥८२।।