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प्रियप्रवास

निरंर्थ चेष्टा करते विलोक के ।
उन्हे स्व - रक्षार्थ दवाग्नि - गर्भ से ।
दया बड़ी ही ब्रज - देव को हुई ।
विशेषतः देख उन्हे अशक्त - सा ।।८३।।

अतः सबो से यह श्याम ने कहा ।
स्व - जाति - उद्धार महान - धर्म है ।
चलो करे पावक मे प्रवेश औ ।
स - धेनु लेवे निज - जाति को वचा ॥८४॥

विपत्ति से रक्षण सर्व - भूत का ।
सहाय होना अ - सहाय जीव का ।
उबारना सकट से स्व - जाति का ।
मनुष्य का सर्व - प्रधान धर्म है ।।८५।।

बिना न त्यागे ममता स्व - प्राण की ।
बिना न जोखो ज्वलदग्नि मे पड़े ।
न हो सका विश्व - महान - कार्य है ।
न सिद्ध होता भव - जन्म हेतु है ॥८६॥

बढ़ो करो वीर स्व - जाति का भला ।
अपार दोनो विध लाभ है हमे ।
किया स्व - कर्तव्य उबार जो लिया ।
सु - कीर्ति पाई यदि भस्म हो गये ।।८७॥

शिखाग्नि से वे सब ओर है घिरे ।
बचा हुआ एक दुरूह - पंथ है ।
परन्तु होगी यदि स्वल्प - देर तो ।
अगम्य होगा यह शेष - पंथ भी ॥८८।।