पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५२
प्रियप्रवास

प्रवेश के बाद स - वेग ही कढ़े।
समस्त - गोपालक - धेनु संग वे।
अलौकिक-स्फूर्ति दिखा त्रि-लोक को।
वसुंधरा मे कल - कीर्ति वेलि बो ॥९५।।

बचा सबों को बलवीर ज्यो कढ़े।
प्रचंड - ज्वाला - मय - पंथ त्यो हुआ।
विलोकते ही यह काण्ड श्याम को।
सभी लगे आदर दे सराहने ॥९६।।

अभागिनी है ब्रज की वसुंधरा ।
बड़े - अभागे हम गोप लोग है।
हरा गया कौस्तुभ जो ब्रजेश का ।
छिना करो से ब्रज - भूमि रत्न जो ॥९७।।

न वित्त होता धन रत्न डूबता।
असंख्य गो - वंश-स - भूमि छूटता ।
समस्त जाता तब भी न शोक था।
सरोज सा आनन जो विलोकता ॥९८॥

अतीव - उत्कण्ठित सर्व - काल हूँ।
विलोकने को यक - बार और भी।
मनोज्ञ - वृन्दावन - व्योम - अंक मे।
उगे हुए आनन - कृष्णचन्द्र को ॥९९॥


______