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प्रियप्रवास

सब - जलाशय थे जल से भरे ।
इस लिये निशि वासर मध्य ही ।
जल - मयी ब्रज की वसुधा बनी ।
सलिल - मग्न हुए पुर - ग्राम भी ॥३०॥

सर - बने बहु विस्तृत - ताल से ।
बन गया सर था लघु - गत भी ।
बहु तरंग - मयी गुरु - नादिनी ।
जलधि तुल्य बनी. रबिनन्दिनी ॥३१॥

तदपि था पड़ता जल पूर्व सा ।
इस लिये अति - व्याकुलता बड़ी ।
विपुल - लोक गये ब्रज - भूप के -
निकट व्यस्त - समस्त अधीर हो ॥३२॥

प्रकृति को कुपिता अवलोक के ।
प्रथम से ब्रज - भूपति व्यग्र थे ।
विपुल - लोक समागत देख के ।
बढ़ गई । उनकी वह व्यग्रता ।।३३।।

पर न सोच सके नृप एक भी ।
उचित यत्न विपत्ति - विनाश का ।
अपर जो उस ठौर बहुज्ञ थे ।
न वह भी शुभ - सम्मति दे सके ॥३४॥

तड़ित सी कछनी कटि मे कसे ।
सु-विलसे नव - नीरद - कान्ति का ।
नवल - बालक एक इसी घड़ी ।
जन - समागम - मध्य दिखा पड़ा ॥३५।।