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द्वादश सर्ग

ब्रज - विभूषण को अवलोक के ।
जन - समूह प्रफुल्लित हो उठा ।
परम - उत्सुकता - वश प्यार से ।
फिर लगा वदनांबुज देखने ॥३६।।

सब उपस्थित - प्राणि - समूह को ।
निरख के निज-आनन देखता ।
वन विशेष विनीत मुकुन्द ने ।
यह कहा व्रज - भूतल - भूप से ।।३७।।

जिस प्रकार घिरे धन व्योम मे ।
प्रकृति है जितनी कुपिता हुई ।
प्रकट है उससे यह हो रहा ।
विपद का टलना बहु - दूर है ।।३।।

इस लिये तज के गिरि - कन्दरा ।
अपर यत्न न है अब त्राण का ।
उचित है इस काल सयत्न हो ।
शरण मे चलना गिरि - राज की ॥३९।।

बहुत सी दरियाँ अति - दिव्य है ।
वृहत कन्दर है उसमे कई ।
निकट भी वह है पुर - ग्राम के ।
इस लिये गमन - स्थल है वहीं‌ ।।४०।।

सुन गिरा यह वारिद - गात की ।
प्रथम तर्क - वितर्क बढ़ा हुआ ।
फिर यही अवधारित हो गया ।
गिरि बिना अवलम्ब, न अन्य है ।‌।४१‌‌।।