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प्रियप्रवास

भ्रमण ही करते सबने उन्हे ।
सकल - काल लखा स - प्रसन्नता ।
रजनि भी उनकी कटती रही। ।
स - विधि - रक्षण मे व्रज-लोक के ॥६६।।

लख अपार प्रसार गिरीन्द्र मे।
ब्रज - धराधिप के प्रिय - पुत्र का।
सकल लोग लगे कहने उसे ।
रख लिया उँगली पर, श्याम ने ॥६॥

जब व्यतीत हुए दुख - वार ए ।
मिट - गया पवनादि प्रकोप भी ।
तब बसा फिर से व्रज - प्रान्त, औ ।
परम - कीर्ति हुई बलवीर की ॥६८॥

अहह ऊधव सो व्रज - भूमि का ।
परम - प्राण - स्वरूप सु- साहसी ।
अब हुआ हग से बहु - दूर है ।
फिर कहो बिलपे ब्रज क्यो नही ।।६९।।

कर्थन मे अब शक्ति न शेष है ।
विनय हूँ करता बन दीन मै ।
ब्रज - विभूषण प्रा निज - नेत्र से ।
दुख - दशा निरखे व्रज - भूमि की ॥७०।।

सलिल - प्लावन से जिस भमि का ।
सदय हो कर -रक्षण था किया ।
अहह आज - वही 'ब्रज की धरा ।
नयन - नीर - प्रवाह - निमग्न है ॥७१॥