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द्वादश सर्ग

होते प्रसन्न यदि वे यह देखते थे ।
कोई स्व-कृत्य करता अति - प्रीति से है ।
यो ही विशिष्ट - पद - गौरव की उपेक्षा ।
देती नितान्त उनके चित को व्यथा थी ॥८४॥

माता पिता गुरुजनो वय में बड़ो को ।
होते निराद्रित कही यदि देखते थे ।
तो खिन्न हो दुखित हो लघु को सुतो को ।
शिक्षा समेत बहुधा बहु - शास्ति देते ।।८५।।

थे राज - पुत्र उनमे मद था न तो भी ।
वे दीन के सदन थे अधिकांश जाते ।
बाते - मनोरम सुना दुख जानते थे ।
औ थे विमोचन उसे करते कृपा से ।।८६।।

रोगी दुखी विपद - आपद मे पड़ो की ।
सेवा सदैव करते निज - हस्त से थे ।
ऐसा निकेत ब्रज मे न मुझे दिखाया ।
कोई जहाँ दुखित हो पर वे न होवे ।।८७।।

संतान - हीन - जन तो ब्रज - बंधु को पा।
संतान - वान निज को कहते रहे ही ।
सतान - वान जन भी ब्रज - रत्न ही का ।
संतान से अधिक थे रखते भरोसा ।।८८।।

जो थे किसी सदन मे बलवीर जाते ।
तो मान वे अधिक पा सकते सुतो से ।
थे राज - पुत्र इस हेतु नही, सदा वे ।
होते सुपूजित रहे शुभ - कर्म द्वारा ।।८९।।