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द्वादश सर्ग

है रोम - रोम कहता घनश्याम आवे ।
आ के मनोहर - प्रभा मुख की दिखावे ।
डाले प्रकाश उर के तम को भगावे ।
ज्योतिविहीन - दृग की द्युति को बढ़ावे ॥९६।।

तो भी सदैव चित से यह चाहता हूँ ।
है रोम - कूप तक से यह नाद होता ।
संभावना यदि किसी कु - प्रपच की हो ।
तो श्याम - मूर्ति ब्रज मे न कदापि आवे ।।९७।।

कैसे भला स्व - हित की कर चिन्तनाये ।
कोई मुकुन्द - हित - ओर न दृष्टि देगा ।
कैसे अश्रेय उसका प्रिय हो सकेगा ।
जो प्राण से अधिक है ब्रज - प्राणियो का ॥९८॥

यो सर्व - वृत्त कहके बहु - उन्मना हो ।
आभीर ने वदन ऊधव का विलोका ।
उद्विग्नता सु - दृढ़ता अ- विमुक्त - वांछा ।
होती प्रसूत उसकी खर - दृष्टि से थी ॥९९॥

ऊधो विलोक करके उसकी अवस्था ।
औ देख गोपगण को बहु - खिन्न होता ।
बोले गिरा मधुर शान्ति - करी विचारी ।
होवे प्रबोध जिससे दुख - दग्धितो का ॥१००॥

द्रुतविलम्बित छन्द
तदुपरान्त गये गृह को सभी ।
ब्रज - विभूषण - कीर्ति बखानते ।
विवुध - पुगव ऊधव को , बना ।
विपुल - बार विमोहित पंथ मे ॥१०१।।
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