पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२४३

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त्रयोदश सर्ग

वंशस्थ छन्द
विशाल - वृन्दावन भव्य - अंक मे ।
रही धरा एक अतीव - उर्वरा ।
नितान्त - रम्या तृण- राजि - संकुला ।
प्रसादिनी प्राणि - समूह दृष्टि की ।।१।।

कहीं कही थे विकसे प्रसून भी ।
उसे बनाते रमणीय जो रहे ।
हरीतिमा मे तृण - राजि - मंजु की ।
बड़ी छटा थी सित - रक्त - पुष्प की ॥२॥

विलोक शोभा उसकी समुत्तमा ।
समोद होती यह कान्त - कल्पना ।
सजा - विछौना हरिताभ है विछा ।
वनस्थली बीच विचित्र - वस्त्र का ॥३॥

स - चारुता हो कर भरि - रंजिता ।
सु - श्वेतता रक्तिमता - विभूति से ।
विराजती है. अथवा हरीतिमा ।
स्वकीय - वैचित्र्य विकाश के लिये ॥४॥

विलोकनीया इस मंजु - भूमि मे ।
जहॉ तहाँ पादप थे हरे-भरे ।
अपूर्व-छाया जिनके सु - पत्र की ।
हरीतिमा को करती प्रगाढ़ थी ॥५॥