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त्रयोदश सर्ग

कही कही था विमलाम्बु भी भरा ।
सुधा समासादित संत चित्त सा ।
विचित्र - क्रीड़ा जिसके सु-अंक मे ।
अनेक - पक्षी करते स - मत्स्य थे ॥६॥

इसी धरा मे बहु - वत्स वृन्द ले ।
अनेक - गाये चरती समोद थी ।
अनेक बैठी । वट - वृक्ष के तले ।
शनैः शनै. थी करती जुगालियाँ ॥७॥

स - गर्व गंभीर - निनाद को सुना ।
जहाँ तहाँ थे वृष मत्त घूमते ।
विमोहिता धेनु - समूह को बना ।
स्व-गात की पीवरता- प्रभाव से ॥८॥

बड़े सधे - गोप - कुमार सैकड़ो ।
गवादि के रक्षण मे प्रवृत्त थे ।
बजा रहे थे कितने विषाण को ।
अनेक गाते गुण थे मुकुन्द का ॥९॥

कई अनूठे - फल तोड़ तोड़ खा ।
विनोदिता थे रसना बना रहे ।
कई किसी सुन्दर - वृक्ष के तले ।
स - बन्धु बैठे करते प्रमोद थे ॥१०॥

इसी घड़ी कानन - कुंज देखते ।
वहाँ पधारे बलवीर - बन्धु भी ।
विलोक आता उनको सुखी बनी ।
प्रफुल्लिता गोपकुमार - मण्डली ॥११॥