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प्रियप्रवास

बिठा बड़े-आदर - भाव से उन्हे ।
सभी लगे माधव - वृत्त पूछने ।
बड़े - सुधी ऊधव भी प्रसन्न हो ।
लगे सुनाने ब्रज - देव की कथा ॥१२॥

मुकुन्द की लोक-ललाम - कीर्ति को ।
सुना सबो ने पहले विमुग्ध हो ।
पुनः बड़े व्याकुल एक ग्वाल ने ।
व्यथा बढ़े यों हरि - बंधु से कहा ॥१३॥

मुकुन्द चाहे वसुदेव - पुत्र हो ।
कुमार होवे अथवा ब्रजेश के ।
बिके उन्हीके कर सर्व - गोप है ।
वसे हुए है मन प्राण में वही ॥१४॥

अहो यही है व्रज - भूमि जानती ।
ब्रजेश्वरी है जननी मुकुन्द की ।
परन्तु तो भी ब्रज - प्राण है वही ।
यथार्थ माँ है यदि देवकांगजा ॥१५॥

मुकुन्द चाहे यदु - वंश के बने ।
सदा रहे या वह गोप - वंश के ।
न तो सकेगे ब्रज - भूमि भूल वे ।
न भूल देगी ब्रज - मेदिनी उन्हे ॥१६॥

वरंच न्यारी उनकी गुणावली ।
बता रही है यह, तत्त्व तुल्य ही ।
न एक का किन्तु मनुष्य - मात्र का ।
समान है स्वत्व मुकुन्द - देव मे ॥१७॥