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त्रयोदश सर्ग

पतंगजा - सुन्दर स्वच्छ - वारि मे ।
स - बन्धु थे मोहन तैरते कभी ।
कदम्ब - शाखा पर बैठ मत्त हो ।
कभी बजाते निज - मंजु - वेणु वे ॥३०॥

चनस्थली उर्वर - अंक उद्भवा ।
अनेक बूटी उपयोगिनी - जड़ी ।
रही परिज्ञात मुकुन्द देव को ।
स्वकीय - संधान-करी सु-बुद्धि से ॥३१॥

वनस्थली मे यदि थे विलोकते ।
किसी परीक्षा - रत-धीर- व्यक्ति को ।
सु - बूटियो का उससे मुकुंद तो ।
स - मर्म थे सर्व - रहस्य जानते ॥३२॥

नवीन - दूर्वा फल - फूल - मूल क्या ।
वरंच वे लौकिक तुच्छ - वस्तु को ।
विलोकते थे खर - दृष्टि से सदा ।
स्व-ज्ञान-मात्रा अभिवृद्धि के लिये ।।३३।।

तृणाति साधारण को उन्हें कभी ।
विलोकते देख निविष्ट चित्त से ।
विरक्त होती यदि ग्वाल - मण्डली ।
उसे बताते यह तो मुकुन्द थे ॥३४।।

रहस्य से शून्य न एक पत्र है ।
न विश्व में व्यर्थ बना तृणेक है ।
करो न संकीर्ण विचार - दृष्टि को ।
न धूलि की भी कणिका निरर्थ है ॥३५।।