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प्रियप्रवास

वनस्थली मे यदि थे विलोकते ।
कहीं बड़ा भीषण - दुष्ट - जन्तु तो ।
उसे मिले घात मुकुन्द मारते ।
स्व-वीर्य से साहस से सु-युक्ति से ॥३६॥

यही बड़ा - भीषण एक व्याल था ।
स्वरूप जो था विकराल - काल का ।
विशाल काले उसके शरीर की ।
करालता थी मति - लोप - कारिणी ॥३७॥

कभी फणी जो पथ - मध्य वक्र हो ।
कॅपा स्व-काया चलता स - वेग तो ।
वनस्थली में उस काल त्रास का ।
प्रकाश पाता अति - उग्र - रूप था ॥३८॥

समेट के स्वीय विशालकाय' को ।
फणा उठा, था जब व्याल बैठता ।
विलोचनो को उस काल दूर से ।
प्रतीत होता वह स्तूप · तुल्य था ॥३९॥

विलोल जिह्वा मुख से मुहुर्मुहुः ।
निकालता था जब सपे क्रुद्ध हो ।
निपात होता तब भूत - प्राण था ।
विभीषिका - गर्त नितान्त गूढ़ मे ॥४०॥

प्रलम्ब आतंक - प्रसू, उपद्रवी ।
अतीव मोटा यम - दीर्घ - दण्ड सा ।
कराल ' आरक्तिम - नेत्रवान औ ।
विषाक्त - फूत्कार निकेत सर्प था ।।४१॥