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प्रियप्रवास

विनष्ट होते शतशः शशादि थे।
सु - पुष्ट मोटे सुम के प्रहार से।
हुए पदाघात बलिष्ट - अश्व का।
विदीर्ण होता वपु वारणादि का ॥६०॥

बड़ा - बली उन्नत - काय - बैल भी।
विलोक होता उसका विपन्न सा।
नितान्त - उत्पीड़न - दंशनादि से।
न त्राण पाता सुरभी - समूह था ।।६१।।

पराक्रमी वीर बलिष्ठ - गोप भी।
न सामना थे करते तुरंग का।
वरंच वे थे बनते विमूढ़ से।
उसे कहीं देख भयाभिभूत हो ॥६२॥

समुच्च - शाखा पर वृक्ष की किसी।
तुरन्त जाते चढ़ थे स - व्यग्रता।
सुन कठोरा - ध्वनि अश्व - टाप की।
समस्त - आभीर अतीव - भीत हो ॥६३।।

मनुष्य आ सम्मुख स्वीय - प्राण को।
बचा नहीं था सकता प्रयत्न से।
दुरन्तता थी उसकी भयावनी ।
विमूढ़कारी रव था तुरंग का ॥६४॥

मुकुन्द ने एक विशाल - दण्ड ले।
स - दर्भ घेरा यक बार वाजि को ।
अनन्तराघांत अजस्र से उसे।
प्रदान की वांछित प्राण - हीनता ॥६५।।