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प्रियप्रवास

अवोध - सीधे बहु - गोप - वाल को ।
अनेक देता वन - मध्य कष्ट था ।
कभी कभी था वह डालता उन्हें™।
डरावनी मेरु - गुहा समूह मे ॥७२॥

विदार देता शिर था प्रहार से ।
कॅपा कलेजा हग फोड़ डालता ।
कभी दिखा दानव सी दुरन्तता ।
निकाल लेता बहु - मूल्य - प्राण था ।।७३।।

प्रयत्न नाना ब्रज - दव ने किये ।
सुधार चेष्टा हित - दृष्टि साथ की ।
परन्तु छूटी उसकी न दुष्टता ।
न दूर कोई कु - प्रवृत्ति हो सकी ।।७४॥

विशुद्ध होती, सु - प्रयत्न से नहीं ।
प्रभूत - शिक्षा उपदेश आदि से ।
प्रभाव - द्वारा बहु - पूर्व पाप के ।
मनुष्य - आत्मा स - विशेप दूपिता ।।७५।।

निपीड़िता देख स्व - जन्मभूमि को ।
अतीव उत्पीड़न से खलेन्द्र के ।
समीप आता लख एकदा उसे ।
स - क्रोध बोले बलभद्र - बंधु यो ॥७६॥

सुधार - चेष्टा बहु - व्यर्थ हो गई ।
न त्याग तू ने कु - प्रवृत्ति को किया ।
अतः यही है अब युक्ति उत्तमा ।
तुझे वधु मैं भव - श्रेय - दृष्टि से ॥७७॥