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त्रयोदश सर्ग

मालिनी छन्द
विपुल - ललित लीला - धाम आमोद - प्याले ।
सकल - कलित - क्रीड़ा कौशलो मे निराले ।
अनुपम - वनमाला को गले बीच डाले ।
कब उमग मिलेंगे लोक - लावण्य - वाले ॥९०।।

कव कुसुमित - कुंजो मे बजेगी बता दो ।
वह मधु - मय - प्यारी - बॉसुरी लाडिले की ।
कब कल - यमुना के कूल वृन्दाटवी मे ।
चित - पुलकितकारी चार आलाप होगा ।।९१।।

कब प्रिय विहरेगे आ पुनः काननो मे ।
कव वह फिर खेलेग चुने - खेल - नाना ।
विविध - रस-निमग्ना भाव सौदर्य - सित्ता ।
कब वर - मुख - मुद्रा लोचनो मे लसेगी ।।९२।‌।

यदि ब्रज - धन छोटा खेल भी खेलते थे ।
क्षण भर न गॅवात चित्त - एकाग्रता थे ।
बहु चकित सदा थी वालको को बनाती ।
अनुपम - मृदुता में छिपता की कलाये ।।९३।।

चकितकर अनूठी-शक्तियाँ श्याम में हैं ।
वर सब - विपयों मे जो उन्हें है बनाती ।
अति - कटिन - कला मे कलि - क्रीड़ादि मे भी ।
वह मुकुट सवा के थे मनोनीत होते ।।९४।।

सवल कुशल क्रीड़ावान भी लाडिल को ।
निज छल बल - द्वारा था नहीं जीत पाता ।
बहु अवसर ऐन अॉख से है विलोके ।
जब कुंवर अकले जीतते थे शतो को ।।९५।।