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प्रियप्रवास



तदपि चित बना है श्याम का चारु ऐसा ।
वह निज - सुहृदो से थे स्वयं हार खाते ।
वह कतिपय जीते - खेल को थे जिताते ।
सफलित करने को बालको की उमंगें ।।९६॥

वह अतिशय - भूखा देख के बालकों को ।
तरु पर चढ़ जाते थे बड़ी- शीघ्रता से ।
निज - कमल - करो से तोड़ मीठे - फलो को ।
वह स-मुद खिलाते थे उन्हे यत्न - द्वारा ॥९७॥

सरस - फल अनूठे - व्यंजनो को यशोदा ।
प्रति - दिन वन मे थी भेजती सेवको से ।
कह कह मृदु - बाते प्यार से पास बैठे ।
ब्रज - रमण खिलाते थे उन्हें गोपजो को ।।९८॥

नव किशलय किम्वा पीन - प्यारे - दलो से ।
वह ललित - खिलौने थे अनेको बनाते ।
वितरण कर पीछे भूरि - सम्मान द्वारा ।
वह मुदित बनाते ग्वाल की मंडली को ॥९९।।

अभिनव - कलिका से पुष्प से पंकजो से ।
रच अनुपम - माला भव्य - आभूषणो को ।
वह निज - कर से थे बालको को पिन्हाते ।
बहु - सुखित बनाते यो सखा - वृन्द को थे ॥१००॥

वह विविध - कथाये देवता - दानवो की ।
अनु दिन कहते थे मिष्टता मंजुता से ।
वह हंस - हॅस बाते थे अनूठी सुनाते ।
सुखकर - तरु - छाया में समासीन हो के ॥१०१।।