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त्रयोदश सर्ग

व्रज - धन जव क्रीड़ा - काल में मत्त होते ।
तव अभि मुख होती मूर्ति - तल्लीनता की ।
बहु थल लगती थी बोलने कोकिलाये ।
यदि वह पिक का सा कुंज मे कूकते थे ॥१०२॥

यदि वह पपिहा की शारिका या शुकी की ।
श्रुति - सुखकर - बोली प्यार से बोलते थे ।
कलरव करते तो भूरि - जातीय - पक्षी ।
ढिग - तरु पर आ के हो बैठते थे ॥१०३।।

यदि वह चलते थे हंस की चाल प्यारी ।
लख अनुपमता तो चित्त था मुग्ध होता ।
यदि कलित कलापी - तुल्य वे नाचते थे ।
निरुपम पटुता तो मोहती थी मनो को ।।१०४।।

यदि वह भरते थे चौकड़ी एण की सी ।
मृग - गण समता की तो न थे ताव लाते ।
यदि वह वन मे थे गर्जते केशरी सा ।
थर - थर कॅपता तो मत्त - मातढ्ग भी था ।।१०५।।

नवल - फल - दलो औ पुष्प - संभार - द्वारा ।
विरचित कर के वे राजसी - वस्नुयो को ।
यदि बन कर राजा बैठ जाते कहीं तो ।
वह छवि बन आती थी विलोके द्दिगो से ॥१०६॥

यह अवगत होता है वहाँ वधु मेरे ।
कल कनक बनाये दिव्य - आभूषणों को ।
स - मुकुट मन - हारी सर्वदा पैन्हते हैं ।
सु - जटित जिनमे है रल पालोकशाली ॥१०७॥