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चतुर्दश सर्ग

मन्दाक्रान्ता छन्द

कालिन्दी के पुलिन पर थी एक कुंजातिरम्या।
छोटे - छोटे सु · द्रुम उसके मुग्ध - कारी बड़े थे।
ऐसे न्यारे प्रति - विटप के अंक मे शोभिता थी।
लीला - शीला - ललित-लतिका पुष्पाभारावनम्रा ।।१॥

बैठे ऊधो मुदित - चित से एकदा थे इसीमे ।
लीलाकारी सलिल सरि का सामने सोहता था।
धीरे - धीरे तपन - किरणे फैलती थी दिशा मे।
न्यारी - क्रीड़ा उमग करती वायु थी पल्लवो से ॥२॥

बालाओ का यक दल इसी काल आता दिखाया।
आशाओ को ध्वनित करके मंजु - मंजीरको से।
देखी जाती इस छविमयी मण्डली संग मे थी।
भोली - भाली कतिपय बड़ी - सुन्दरी -बालिकाये॥३।।

नीला - प्यारा उदक सरि का देख के एक श्यामा ।
बोली हो के विरस - वदना अन्य - गोपांगना से ।
कालिन्दी का पुलिन मुझको उन्मना है बनाता।
लीला - मग्ना जलद • तन की मत्ति है याद आती ॥४॥