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प्रियप्रवास

प्यारे - भ्राता - सुत - स्वजन सा श्याम को चाहती है ।
जो बालाये व्यथित वह भी आज है उन्मना हो ।
प्यारा - न्यारा - निज- हृदय जो श्याम को दे चुकी है ।
हा! क्यो बाला न वह दुख से दग्ध हो रो मरेगी ॥११॥

ज्यो ए बाते व्यथित - चित से गोपिका ने सुनाई ।
त्यो सारी ही करुण - स्वर से रो उठी कम्पिता हो ।
ऐसा न्यारा - विरह . उनका देख उन्माद - कारी ।
धीरे ऊधो निकट उनके कुंज को त्याग आये ॥१२॥

ज्यो पाते ही सम - तल धरा वारि - उन्मुक्त -धारा ।
पा जाती है प्रमित - थिरता त्याग तेजस्विता को ।
त्योही होता प्रबल दुख का वेग विभ्रान्तकारी ।
पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व - गोपी - जनो का ॥१३॥

प्यारी - बाते स - विध कह के मान-सम्मान - सिक्ता ।
ऊधो जी को निकट सबने नम्रता से बिठाया ।
पूछा मेरे कुँवर अब भी क्यो नहीं गेह आये ।
क्या वे भूले कमल - पग की प्रेमिका गोपियो को ॥१४॥

ऊधो बोले समय - गति है गूढ़ - अज्ञात बेड़ी ।
क्या होवेगा कब यह नहीं जीव है जान पाता ।
आवेगे या न अब ब्रज मे आ सकेगे बिहारी ।
हा! मीमांसा इस दुख - पगे प्रश्न की क्यो. करूँ मै ॥१५॥

व्यारा वृन्दा - विपिन उनको आज भी पूर्व - सा है ।
वे भले है न प्रिय - जननी औ न प्यारे - पिता-को ।
वैसी ही है सुरति करते , श्याम गोपांगना की ।
वैसी ही है प्रणय - प्रतिमा- बालिका याद आती ॥१६॥