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प्रियप्रवास

ऐसे - ऐसे जगत - हित के कार्य हैं चक्षु आगे ।
हैं सारे ही विषय जिनके सामने श्याम भूले ।
सच्चे जी से परम - व्रत के वे व्रती हो चुके ।
निष्कामी से अपर - कृति के कूल - वर्ती अतः हैं ॥२३॥

मीमांसा है प्रथम करते स्वीय कर्त्तव्य ही की ।
पीछे वे हैं निरत उसमे धीरता साथ होते ।
हो के वांछा - विवश अथवा लिप्त हो वासना से ।
प्यारे होते न च्युत अपने मुख्य - कर्त्तव्य से है ॥२४॥

घूमूॅ जा के कुसुम - वन मे वायु - आनन्द मैं लूँ ।
देखें प्यारी सुमन - लतिका चित्त यो चाहता है ।
रोता, कोई व्यथित उनको जो तभी दीख जावे ।
तो जावेगे न उपवन मे शान्ति देगे उसे वे ॥२५॥

जो सेवा हो कुँवर करते स्वीय - माता-पिता की ।
या वे होवे स्व - गुरुजन को बैठ सम्मान देते ।
ऐसे बेले यदि सुन.. पड़े आर्त - वाणी उन्हे तो ।
वे देवेगे शरण उसको त्याग सेवा बड़ो की ॥२६॥

जो वे बैठे सदन करते कार्य होवे अनेको ।
औ कोई आ कथन उनसे यों करे व्यग्र हो के ।
गेहो को है दहन करती वर्धिता.- ज्वाल - माला ।
तो दौड़ेगे तुरत तज वे कार्य प्यारे - सहस्रो ।।२७।।

कोई प्यारा-सुहृद उनका या स्व - जातीय - प्राणी ।
दुष्टात्मा हो, मनुज - कुल का शत्रु हो, पातकी हो ।
तो वे सारी हृदय - तल की भूल के वेदनाये ।
शास्ता हो के उचित उसको दण्ड औ शास्ति देंगे ।।२८।।