पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९३
प्रियप्रवास

जो बूझेगा न ब्रज कहते लोक - सेवा किसे है।
जो जानेगा न वह, भव के, श्रेय का मर्म क्या है।
जो सोचेगा न गुरु - गरिमा लोक के प्रेमिको की।
कर्तव्यों मे कुँवर - वर को तो बड़ा - क्लेश होगा ॥३५।।

प्रायः होता हृदय - तल है एक ही मानवो का।
जो पाता है न सुख यक तो अन्य भी है न पाता।
जो पीड़ाये - प्रबल बन के एक को है सताती।
तो होने, से व्यथित बचता दूसरा भी नहीं है ॥३६।।

जो ऐसी ही रुदन करती बालिकाये रहेगी।
पीड़ाये भी विविध उनको जो इसी भॉति होगी।
यो ही रो - रो सकल ब्रज जो दग्ध होता रहेगा।
तो आवेगा ब्रज - अधिप के चित्त को चैन कैसे ॥३७॥

जो होवेगा न चित उनका शान्त स्वच्छन्दचारी।
तो वे कैसे जगत - हित को चारुता से करेंगे।
सत्कार्यों मे परम - प्रिय के अल्प भी विघ्न - वाधा।
कैसे होगी, उचित, चित मे गोपियो, सोच देखो ॥३८॥

धीरे - धीरे भ्रमित - मन को योग - द्वारा सम्हालो ।
स्वार्थों को भी जगत - हित के, अर्थ सानन्द त्यागो।
भलो मोहो न तुम लख के वासना मतियो को।
यो होवेगा,- दुख शमन औ, शान्ति न्यारी मिलेगी ॥३९

ऊधो बाते, हृदय,- तल..की वेधिनी गूढ प्यारी।
खिन्ना हो हो स-विनय सुना सर्व गोपी - जनो ने।
पीछे बोली अति - चकित हो म्लान हो उन्मना हो।
कैसे मूर्खा अधम हम सी आपकी बात बूझे ॥४०॥