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प्रियप्रवास

मीठे-मीठे वचन जिसके, नित्य ही मोहते, थे ।
हा! कानो से श्रवण करती हूँ उसीकी कहानी ।
भूले से भी न छवि उसकी आज हूँ देख पाती ।
जो निर्मोही कुँवर बसते लोचनो मे सदा थे ॥४७॥

मै रोती हूँ व्यथित बन के कूटती हूँ कलेजा ।
या ऑखो से पग - युगल की माधुरी देखती थी ।
या है ऐसा कु - दिन इतना हो गया भाग्य खोटा ।
मै प्यारे के चरण - तल की धूलि भी हूँ न पाती ।।४८।।

ऐसी कुंजें ब्रज - अवनि मे है अनेको ,जहाँ जा ।
आ जाती है द्दग - युगल के सामने मूर्ति - न्यारी ।
प्यारी - लीला उमग जसुदा - लाल ने है जहाँ की ।
ऐसी ठौरो ललक दृग है आज भी लग्न होते ॥४९॥

फूली डाले सु - कुसुममयी नीप की देख आँखो ।
आ जाती है हृदय धन की मोहनी मूर्ति आगे ।
कालिन्दी के पुलिन पर आ देख नीलाम्बु न्यारा ।
हो जाती है उदय उर मे माधुरी अम्बुदो सी ॥५०॥

सूखे न्यारा सलिल सरि का दग्ध हो कुंज - पुंजे ।
फूटे ऑखे, हृदय - तल भी ध्वंस हो गोपियो का ।
सारा वृन्दा - विपिन उजड़े नीप निर्मूल होवे ।
तो भूलेगे प्रथित - गुण के पुण्य - पाथोधि माधो ॥५१॥

आसीना जो मलिन - वदना बालिकाये कई है ।
ऐसी ही है व्रज - अवनि मे बालिकाये अनेको ।
जी होता है व्यथित जिनका देख उद्विग्न हो हो ।
रोना - धोना विकल बनना दग्ध होना न सोना ॥५२॥