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प्रियप्रवास

शोभा देता सतत उनकी दृष्टि के सामने था।
वांछा पुष्पाकलित सुख का एक उद्यान फूला।
हा! सो शोभा - सदन अब है नित्य उत्सन्न होता।
सारे प्यारे कुसुम - कुल भी हैं न उत्फुल्ल होते ॥५९।।

जो मर्यादा सुमति, कुल की लाज को है जलाती।
फूँके देती परम - तप से प्राप्त सं - सिद्धि को है।
ए बालाये परम - सरला सर्वथा अप्रगल्भा ।
कैसे ऐसी मदन - दव की तीव्र - ज्वाला सहेगी ॥६०॥

चक्री होते चकित जिससे कॉपते हैं पिनाकी ।
जो वज्री के हृदय - तल को क्षुब्ध देता बना है।
जो है पूरा व्यथित करता विश्व के देहियो को।
कैसे ऐसे रति - रमण के वाण से वे बचेंगी ।।६१।।

जो हो के भी परम - मृदु है वज्र का काम देता।
जो हो के भी कुसुम, करता शेल की सी क्रिया है ।
जो हो के भी मधुर बनता है महा - दग्ध - कारी।
कसे ऐसे मदन - शर से रक्षिता वे रहेंगी ॥६२।।

प्रत्यंगो मे प्रचुर जिसकी व्याप जाती कला है।
जो हो जाता अति विषम है काल - कूटादिको सा।
मद्यो से भी अधिक जिसमे शक्ति उन्मादिनी है।
कैसे ऐसे मदन - मद से वे न उन्मत्त होगी ।।६३।।

कैसे कोई अहह उनको देख आँखो सकेगा।
वे होवेगी विकटतम औ घोर रोमांच - कारी।
पीड़ाये जो ‘मदन' हिम के प्रात के तुल्य देगा।
स्नेहोत्फुल्ला - विकच - वदना बलिकांभोजिनी को ॥६४।।