पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०१
चतुर्दश सर्ग

मेरी बाते श्रवण करके आप जो पूछ बैठे।
कैसे प्यारे - कुँवर अकले व्याहते सैकड़ो को।
तो है मेरी विनय इतनी आप सा उच्च - ज्ञानी ।
क्या ज्ञाता है न बुध - विदिता प्रेम की अंधता का ॥६५॥

आसक्ता हैं विमल - विधु की तारिकायें अनेकों ।
हैं लाखो ही कमल - कलियाँ भानु की प्रेमिकाये।
जो बालाये विपुल हरि मे रक्त हैं चित्र क्या है ?
प्रेमी का ही हृदय गरिमा जानता प्रेम की है ॥६६॥

जो धाता ने अवनि - तल मे रूप की सृष्टि की है।
तो क्यो ऊधो न वह नर के मोह का हेतु होगा।
माधो जैसे रुचिर जन के रूप की कान्ति देखे।
क्यों मोहेगी न बहु - सुमना - सुन्दरी - बालिकाये ॥६७।।

जो मोहेगी जतन मिलने का न कैसे करेंगी।
वे होवेगी न यदि सफला क्यो न उद्भ्रान्त होगी।
ऊधो पूरी जटिल -इनकी हो गई है समस्या ।
यो तो सारी ब्रज - अवनि ही है महा शोक - मन्ना ।।६८।।

जो वे आते न व्रज बरसो, टूट जाती न आशा।
चोटे खाता न उर उतना जी न यो ऊब जाता।
जो वे जा के न मधुपुर मे वृष्णि - वंशी कहाते ।
प्यारे बेटे न यदि बनते श्रीमती देवकी के ॥६९।।

ऊधो वे हैं परम सुकृती भाग्यवाले वड़े हैं।
ऐसा न्यारा - रतन जिनको आज यो हाथ आया।
सारे प्राणी व्रज - अवनि के हैं बड़े ही अभागे।
जो पाते ही न अब अपना चारु चिन्तामणी हैं ॥७॥