पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२७४

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चतुर्दश सर्ग

भू में रमी शरद की कमनीयता थी ।
नीला अनन्त - नभ निर्मल हो गया था ।
थी छा गई ककुभ मे अमिता सिताभा ।
उत्फुल्ल सी प्रकृति, थी प्रतिभात होती ॥७७॥

होता सतोगुण प्रसार दिगन्त मे है ।
है विश्व - मध्य सितता अभिवृद्धि पाती ।
सारे स - नेत्र जन को यह थे वताते ।
कान्तार - काश, विकसे सित - पुष्प - द्वारा ॥७८॥

शोभा - निकेत अति - उज्वल कान्तिशाली ।
था वारि - विन्दु जिसका नव मौक्तिको सा ।
स्वच्छोदका विपुल ; मंजुल - वीचि,- शीला ।
थी भन्द - मन्द बहती सरितातिभव्या ।।७९।।

उच्छवास था न अब कूल विलीनकारी ।
था वेग भी न अति - उत्कट कर्ण - भेदी ।
आवत जाल अव था न धरा- विलोपी ।
धीरा, प्रशान्त, विमलाम्बुवती, नदी थी ।।८०।।

था मेघ शून्य नभ उज्वल - कान्ति वाला ।
मालिन्य - हीन मुदिता नव - दिग्वधू थी ।
थी भव्य - भूमि गत - कर्दम स्वच्छ रम्या ।
सर्वत्र धौत जल निमलता लसी थी ।।८१।‌।

शा कान्तार मे सरित - तीर सुगहरो मे ।
थे मंद - मंद बहते जल स्वच्छ - सोते ।
होती अजस्त्र उनमे ध्वनि थी अनूठी ।
वे थे कृती शरद की कल - कीत्ति गाते ।।८२‌।।