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प्रियप्रवास

नाना नवागत - विहंग - वरूथ - द्वारा ।
वापी तड़ाग सर- शोभित हो रहे थे ।
फूले सरोज मिष हर्षित लोचनो से। ।
वे हो विमुग्ध जिनको अवलोकते थे ।।८३।।

नाना - सरोवर खिले - नव - पंकजो को ।
ले अंक मे विलसते मन - मोहते थे ।
मानों पसार अपने शतशः करो को ।
वे माँगते शरद से सु-विभतियाँ थे ॥८४॥

प्यारे सु - चित्रित सितासित रंगवाले ।
थे दीखते चपल - खंजन प्रान्तरो मे ।
बैठी मनोरम सरो पर सोहती थी ।
आई स-मोद ब्रज • मध्य मराल - माला ।।८५।।

प्रायः निरम्बु कर पावस - नीरदों को ।
पानी सुखा प्रचुर - प्रान्तर औ पथों का ।
न्यारे - असीम - नभ मे मुदिता मही में ।
व्यापी नवोदित - अगस्त नई - विभा थी ॥८६॥

था कार-मास निशि थी अति-रम्य-राका ।
पूरी कला - सहित शोभित चन्द्रमा था ।
ज्योतिमयी विमलभत दिशा बना के ।
सौदर्य साथ लसती क्षिति में सिता थी ॥८७॥

शोभा - मयी शरद की ऋतु पा दिशा मे ।
निर्मेघ - व्योम - तल मे सु - वसुंधरा मे ।
होती सु - संगति अतीव - मनोहरा थी ।
न्यारी कलाकर - कला नव स्वच्छता की ।।८८॥