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चतुर्दश सर्ग

प्यारी - प्रभा रजनि - रंजन की नगो को ।
जो थी असंख्य नव - हीरक से लसाती ।
तो वीचि मे तपन की प्रिय - कन्यका के ।
थी चारु - चूर्ण-मणि मौक्तिक के मिलाती ॥८९॥

थे स्नात से सकल - पादप चन्द्रिका से ।
प्रत्येक - पल्लव प्रभा - मय दीखता था ।
फैली लता विकच - वेलि प्रफुल्ल - शाखा ।
डूबी विचित्र - तर निर्मल - ज्योति मे थी ॥९०॥

जो मेदिनी रजत - पत्र - मयी, हुई थी ।
किम्बा पयोधि - पय से यदि प्लाविता थी ।
तो पत्र - पत्र पर पादप - वेलियो के ।
पूरी हुई प्रथित - पारद प्रक्रिया थी ।।९१।।

था मंद - मंद हसता विधु व्योम - शोभी ।
होती प्रवाहित धरातल मे सुधा थी ।
जो पा प्रवेश हग मे प्रिय - अंशु - द्वारा ।
थी मत्त - प्राय करती मन - मानवो का ||९२।।

अत्युज्वला पहन तारक - मुक्त - माला ।
दिव्याबरा बन अलौकिक- कौमुदी से ।
शोभा - भरी परम - मुग्धकरी हुई, थी ।
राका कलाकर - मुखी रजनी - पुरन्ध्री ।।९३।।

पूरी समुज्वल हुई सित - यामिनी थी ।
होता प्रतीत रजनी - पति भानु सा था ।
पीती कभी परम - मुग्ध बनी सुधा थी ।
होती कभी चकित थी चतुरा - चकोरी ॥९४॥