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प्रियप्रवास

ले पुष्प - सौरभ तथा पय - सीकरो को।
थी मन्द - मन्द बहती पवनाति प्यारी।
जो थी मनोरम अतीव - प्रफुल्ल - कारी।
हो सिक्त सुन्दर सुधाकर की सुधा से ॥९५।।

चन्द्रोज्वला रजत - पत्र- वती मनोज्ञा।
शान्ता नितान्त - सरसा सु - मयूख सिक्ता ।
शुभ्रांगिनी सु - पवना सुजला सु- कूला।
सत्पुष्पसौरभवती वन मेदनी थी॥९६।।

ऐसी अलौकिक अपूर्व वसुंधरा मे।
ऐसे मनोरम - अलंकृत काल को पा।
वंशी अचानक बजी अति ही रसीली।
आनन्द - कन्द ब्रज - गोप - गणाग्रणी की ।।९७॥

भावाश्रयी मुरलिका स्वर मुग्ध - कारी।
आदौ हुआ मरुत साथ दिगन्त - व्यापी।
पीछे पड़ा श्रवण मे बहु - भावुको के।
पीयूष के प्रमुद - वर्द्धक - विन्दुओ सा ॥९८॥

पूरी विमोहित हई यदि गोपिकाये।
तो गोप - वृन्द अति - मुग्ध हुए स्वरो से।
फैली विनोद - लहरे ब्रज - मेदिनी में।
आनन्द - अंकुर उगा उर मे जनो के ॥९९।।

वंशी - निनाद सुन त्याग निकेतनो को।
दौड़ी अपार जनताति : उमंगिता हो।
गोपी समेत बहु गोप तथांगनाये।
आई विहार - रुचि से वन - मेदिनी मे ॥१००॥