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प्रियप्रवास

भू,- व्योम - व्यापित कलाधर की सुधा मे ।
न्यारी - सुधा मिलित,हो मुरली - स्वरो की ।
धारा अपूर्व.- रस की महि में वहा के ।
सर्वत्र थी अति - अलौकिकता लसाती ॥१०७।।

उत्फुल्ल थे विटप - वृन्द. विशेप होते ।
माधुर्य था विकच, पुष्प - समूह पाता ।
होती विकाश - मय मंजुल - वेलियाँ थी ।
लालित्य - धाम बनती नवला लता थी ।।१०८।।

क्रीड़ा-मयी ध्वनि-मयी कल-ज्योतिवाली ।
धारा अश्वेत सरि की अति तद्गता थी ।
थी नाचती उमगती अनुरक्त होती ।
उल्लासिता विहसिताति प्रफुल्लिता थी ।।१०९।।

पाई अपूर्व - स्थिरता मृदु - वायु ने थी ।
मानो अचंचल विमोहित हो बनी थी ।
वंशी मनोज्ञ - स्वर से बहु - मोदिता हो ।
माधुर्य - साथ हॅसती सित - चन्द्रिका थी ॥११०।।

सत्कण्ठ साथ नर - नारि - समूह - गाना ।
उत्कण्ठ था न किसको महि मे बनाता ।
ताने उमंगित - करी कल - कण्ठ जाता ।
तंत्री रही जन - उरस्थल की बजाती ।।१११।।

ले वायु कण्ठ - स्वर, वेणु - निनाद-न्यारा ।
प्यारी मृदंग - ध्वनि, मंजुल बीन - मीड़े ।
सामोद घूम बहु - पान्थ खगो मृगो को ।
थी मत्तप्राय नर - किन्नर को बनाती ।।११२।।