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प्रियप्रवास

माधो विलोक सबको मुद - मत्त बोले ।
देखो छटा - विपिन की कल - कौमुदी मे ।
आना करो सफल कानन में गृहो से ।
शोभामयी - प्रकृति की गरिमा विलोको ॥११९॥

बीसों विचित्र - दल केवल. नारि का था ।
यो ही अनेक दल केवल थे नरो के ।
नारी तथा नर मिले दल थे सहस्रो ।
उत्कण्ठ हो सब उठे सुन श्याम - बाते ॥१२०॥

सानन्द सर्व- दल कानन - मध्य फैला ।
होने लगा सुखित दृश्य विलोक नाना ।
देने लगा उर कभी नवला - लता को ।
गाने लगा कलित - कीर्ति कभी कला की ॥१२१।।

आभा-अलौकिक दिखा निज - वल्लभाको ।
पीछे कला - कर - मुखी कहता उसे था ।
तोभी तिरस्कृत हुए छवि- गर्विता से ।
होता प्रफुल्ल तम था दल - भावुको का ॥१२२॥

जा कूल स्वच्छ - सर के नलिनी दलो मे ।
आबद्ध देख हग से अलि - दारु - वेधी ।
उत्फुल्ल हो समझता अवधारता था ।
उद्दाम - प्रेम - महिमा दल - प्रेमिको का ॥१२३॥

विच्छिन्न हो स्व - दल से बहु - गोपिकाये ।
स्वच्छन्द थी विचरती रुचिर - स्थलो मे ।
या बैठ चन्द्र - कर-धौत - धरातलो मे ।
वे थी स-मोद करती मधु - सिक्त बाते ॥१२४।।