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चतुर्दश सर्ग

कोई प्रफुल्ल - लतिका कर से हिला के ।
वो- प्रसून चय की कर मुग्ध होता ।
कोई स-पल्लव स - पुष्प मनोज्ञ - शाखा ।
था प्रेम साथ रखता कर मे प्रिया के ॥१२५॥

आ मंद-मंद मन-मोहन मण्डली मे ।
वाते बड़ी-सरस थे सबको सुनाते ।
हो भाव - मत्त - स्वर मे मृदुता मिला के ।
या थे महा - मधु - मयी - मुरली बजाते ॥१२६॥

आलोक - उज्वल दिखा गिरि - शृंग - माला ।
थे यो मुकुन्द कहते छवि- दर्शको से ।
देखो गिरीन्द्र - शिर पै महती - प्रभा का ।
है चन्द्र-कान्त-मणि-मण्डित - क्रीट कैसा ॥१२७॥

धारा - मयी अमल श्यामल - अर्कजा मे ।
प्रायः स - तारक विलोक मयंक - छाया ।
थे सोचते खचित - रत्न असेत शादी ।
है पैन्ह ली प्रमुदिता वन - भू-वधू ने ॥१२८।।

ज्योतिर्मयी - विकसिता - हसिता लता को ।
लालित्य साथ लपटी तरु से दिखा के ।
थे भाखते पति - रता - अवलम्बिता का ।
कैसा प्रमोदमय जीवन - है दिखाता ॥१२९।।

आलोक से लसित पादप - वृन्द नीचे ।
छाये हुए तिमिर को कर से दिखा के ।
थे यो मुकुन्द कहते मलिनान्तरो का ।
है वाह्य रूप बहु - उज्वल दृष्टि आता ॥१३०॥