पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१२
प्रियप्रवास

ऐसे मनोरम - प्रभामय - काल मे भी ।
म्लाना नितान्त अवलोक सरोजिनी को ।
थे यो ब्रजेन्दु कहते कुल - कामिनी को ।
स्वामी बिना सब तमोमय है दिखाता ।।१३१।।

फूले हुए कुमुद देख सरोवरो मे ।
माधो सु - उक्ति यह थे सबको सुनाते ।
उत्कर्ष देख निज अंकपले.- शशी का ।
है वारि - राशि कुमुदो मिष हृष्ट होता ॥१३२।।

फैली विलोक सब ओर मयंक - आभा ।
आनन्द साथ कहते यह थे बिहारी ।
है कीर्ति, भू ककुभ मे अति - कान्त छाई ।
प्रत्येक धूलि - कणरंजन - कारिणी की ॥१३३।।

फूलो दलो पर विराजित ओस - बूंदे ।
जो श्याम को दमकती द्युति से दिखाती ।
तो वे समोद कहते वन - देवियो ने ।
की है कला पर निछावर मंजु - मुक्ता ॥१३४।।

आपाद - मस्तक खिले कमनीय पौधे ।
जो देखते मुदित होकर तो बताते ।
होके सु-रंजित सुधा-निधि की कला से ।
फूले नही नवल - पादप है समाते ॥१३५।।

यो थे कलाकर दिखा कहते बिहारी ।
है स्वर्ण - मेरु यह मंजुलता-धरा का ।
है कल्प - पादप मनोहरताटवी का ।
आनन्द - अंबुधि महामणि है मृगांक ॥१३६।।