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चतुर्दश सर्ग

है ज्योति - आकर पयोनिधि है सुधा का ।
शोभा-निकेत प्रिय वल्लभ है निशा का ।
है भाल का प्रकृति के अभिराम भूषा ।
सर्वस्व है परम - रूपवती कला का ॥१३७॥

जैसी मनोहर हुई यह यामिनी थी ।
वैसी कभी न जन-लोचन ने विलोकी ।
जैसी बही रससरी इस शर्वरी मे ।
वैसी कभी न ब्रज - भूतल मे बही थी ॥१३८।।

जैसी बजी मधुर - बीन मृदंग - वंशी ।
जैसा हुआ रुचिर नृत्य विचित्र गाना ।
जैसा बॅधा इस महा-निशि मे समाँ था ।
होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा ॥१३९।।

न्यारी छटा वदन की जिसने विलोकी ।
वंशी - निनाद मन दे जिसने सुना है ।
देखा विहार जिसने इस यामिनी मे ।
कैसे मुकुन्द उसके उर से कढ़ेगे ॥१४०।।

हो के विभिन्न, रवि का कर, ताप त्यागे ।
देवे मयंक - कर को तज माधुरी भी ।
तो भी नहीं ब्रज - धरा-जन के उरो से ।
उत्फुल्ल - मूर्ति मनमोहन की कढ़ेगी ॥१४१।।

धारा वही जल वही यमुना वही है ।
है कुंज - वैभव वही वन - भू वही है ।
है पुष्प - पल्लव वही व्रज भी वही है ।
ए है वही न घनश्याम चिना जनाते ॥१४२॥