पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१४
प्रियप्रवास

कोई दुखी - जन विलोक पसीजता है ।
कोई विषाद - वश रो पड़ता दिखाया ।
कोई प्रबोध कर, ‘है, परितोष देता ।
है किन्तु सत्य हित - कारक व्यक्ति कोई ॥१४३।।

सच्चे हितू तुम बनो ब्रज की धरा के ।
ऊधो यही विनय है मुझ सेविका की ।
कोई दुखी न व्रज के जन- तुल्य होगा ।
ए है अनाथ - सम भूरि - कृपाधिकारी ।।१४४।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
बातो ही मे दिन गत हुआ किन्तु गोपी न ऊवी ।
वैसे ही थी कंथन करती वे व्यथाये स्वकीया ।
पीछे आई पुलिन पर जो सैकड़ो गोपिकाये ।
वे कष्टो को अधिकतर हो उत्सुका थी सुनाती ॥१४५।।

वंशस्थ छन्द
परन्तु संध्या अवलोक आगता ।
मुकुन्द के बुद्धि - निधान बंधु ने ।
समस्त गोपी-जन को प्रबोध दे ।
समाप्त आलोचित - वृत्त को किया ॥१४६॥

द्रुतविलम्बित छन्द
तदुपरान्त अतीव सराहना ।
कर अलौकिक - पावन प्रेम की ।
व्रज - वधू - जन की कर सान्त्वना ।
ब्रज - विभूषण - बंधु बिदा हुए ॥१४७॥