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प्रियप्रवास

क्या बाते है मधुर इतना आज तू जो बना है ।
क्या आते है ब्रज-अवनि मे मेघ सी कान्तिवाले ? ।
या कुंजो मे अटन करते देख पाया उन्हे है ।
या आ के है स - मुद् परसा हस्त - द्वारा उन्होने ॥ ५॥

तेरी प्यारी मधुर - सरसा - लालिमा है बताती ।
डूबा तेरा हृदय - तल है लाल के रंग ही मे ।
मै होती हूँ विकल पर तू बोलता भी नहीं है ।
कैसे तेरी सरस - रसना कुंठिता हो गई है ।।६।।

हा! कैसी मैं निठुर तुझसे वंचिता हो रही हूँ ।
जो जिह्वा हूँ कथन - रहिता - पंखड़ी को बनाती ।
तू क्यो होगा सदय दुख क्यो दूर मेरा करेगा ।
तू कॉटो से जनित यदि है काठ का जो सगा है ।। ७॥

आ के जूही - निकट फिर यो वालिका व्यग्र बोली ।
मेरी बाते तनिक न सुनी पातकी - पाटलो ने ।
पीड़ा नारी - हृदय - तल की नारि ही जानती है ।
जूही तू है विकच - वदना शान्ति तू ही मुझे दे ।।८॥

तेरी भीनी - महॅक मुझको मोह लेती सदा थी ।
क्यो है प्यारी न वह लगती ‘आज, सच्ची बता दे ।
क्या तेरी है महक बदली या हुई और ही तू ।
या तेरा भी सरबस गया साथ ऊधो : सखा के ॥९॥

छोटी - छोटी रुचिर अपनी श्याम - पत्रावली मे ।
तू शोभा से विकच जब थी भूरिता साथ होती ।
ताराओ से खचित नभ सी भव्य तो थी दिखाती ।
हा! क्यो वैसी सरस - छवि से वंचिता आज तू है ॥१०॥